पहाड़ो पर गूंजती कोकिल कण्ठी कबूतरी

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हल्द्वानी । सफेद हिमालय के बीचों बींच काली नदी की लहरों में बसता संगीत पहाड़ो पर गूंजती आवाज, पहाड़ो ठण्डो पाणी सुनकती मीठी बानी, ये धुन ये गीत और इस गीत को गाने वाली आवाज बरबस ही सभी लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है। पहाड़ का ठण्डा पानी और यहां के सीधे सरल लोगों की बोली बिल्कुल भी छोड़ के जाने का मन नहीं करता, इतना प्रकृति प्रेम, केवल सुनने मात्र से जीवन की सार्थकता नहीं बनती बल्कि इस गीत को सुनकर वाकई पहाड़ की सुरम्भ वादियों का आभास होता है यहां जाकर जीने को मन करता है। ये खूबसूरत गीत उत्तराखण्ड की कोकिलकण्ठी लोकगायिका के कण्ठ से निकला जब भी ये गीत लोगों ने सुना तो प्रशंसा करे बिना नहीं रह पाये। पहाड़ो पर मजदूरों की तरह काम करने वाली कबूतरी देवी के गीतों में जितना प्रेम प्रकृति के लिए देखने को मिला शायद ही कहीं देखने को मिलेगा। कबूतरी देवी को काली पार की सांझा लोक संस्कृति के प्रतीक के रूप में जाना जाता है। भारत और नेपाल की गायकी के अंश को उनके गीतों में महसूस करना स्वंय में एक अद्भुत अनुभव है। चंूकि कबूतरी काली कुमाउं से ताल्लुक रखती थी उनका जन्म 18 जनवरी 1945 को लेती गांव ;चम्पावतद्ध में हुआ। इसलिए काली कुमाउं की गायकी की बारीकिया उन्हें विरासत में मिली। घर में संगीत का माहौल था इसलिए उन्हें कभी बाहर जाकर संगीत सिखने की आवश्यकता नहीं पड़ी। पिता देबराम और माता देवकी देवी संगीत में पारंगत थे। इसलिए उन्होंने अपनी सुपुत्री को घर पर ही संगीत की तालीम दी। 40 के दशक में पुरूषों का ही पढ़ना लिखना बहुत मुश्किल था तो कबूतरी की शिक्षा बहुत दूर की बात थी।
कबूतरी देवी जब 14 वर्ष की थी तब उनके माता पिता ने उनका विवाह पिथौरागढ़ भूनाकोट के क्वीतड़ गांव में दीवानी राम से कर दिया। ससुराल में संगीत का ज्यादा माहौल कबूतरी को नहीं मिला। किन्तु पति दवानी राम ने उनकी प्रतिभा को पहचान कर जन मानस तक पहंुचाया। साथ ही अपनी पत्नी को लखनउ आकाशवाणी भी ले गये। जहां लोक संगीत में उन्होंने आॅडिशन पास किया और साथ ही रिकार्डिग भी की गई। इस तरह अब कबूतरी आकाशवाणी की कलाकार बन गई। कबूतरी के लखनउ, नजीमाबाद, रामपुर और अल्मोड़ा से गीत प्रसारित होने लगे और लखनउ दूरदर्शन ने भी कबूतरी के गीतों को प्रसारित किया। पहाड़ो पर गूंजने वाली ये आवाज अब रेडियों और टेलिविजन की आवाज बन गयी। पति दीवानी राम की मेहनत रंग लाई। कबूतरी की एक पहचान बन ही रही थी कि पति दीवानी राम का वियोग उन्हें सहना पड़ा। 30 दिसम्बर 1984 में दीवानी राम जी का स्वर्गवास हो गया। पति की मृत्यु के बाद परिवार की जिम्मेदारी और आर्थिक स्थिति को देखते कबूतरी खुद को तो भूल गयी साथ में भूल गयी उन लोक गीतांे को जो कभी उन्होंने गाये थे। लगभग 15-16 साल तक वो गुमनामी के अंधेरों में खो गयी। अपने परिवार और जिम्मेदारियांे को निभाती रही। फिर 15-16 साल के बाद नवोदय पर्वतीय कला केन्द्र के अध्यक्ष श्री हेमराज बिष्ट जी ने उन्हें गुमनामी के अंधेरे से निकाला और उनकी आवाज को दोबारा जन मानस तक पहंुचाया। हेमराज बिष्ट जी उन्हें दीदी कहकर सम्बोधित करते थे। अब कबूतरी की आवाज में और अधिक दर्द, गम्भीरता और समझदारी थी। जब कबूतरी को सच मे मदद की जरूरत थी तब किसी ने उनकी मदद के लिए हाथ आगे नहीं बढ़ाये, हेमराज बिष्ट जी का नाम इसलिए आवश्यक है क्योंकि दोबारा संगीत के क्षेत्र में वो ही उन्हें लेकर आये। कबूतरी देवी राष्टपति पुरूस्कार से सम्मानित है। लोकगीत तो कबूतरी जी की खनकती हुई आवाज में ऐसे लगते मानों पहाड़ो की हवाओं में मधुर संगीत तैर रहा हो, यही कारण था जब भी उनके कोकिल कण्ठ सुनाई देती उनके गीतों में मुख्य रूप से प्रकृति की खूबसूरती पलायन का दर्द सुनने को मिलता। रोजमर्रा की जिन्दगी में एक मजदूर को जीवन यापन करने हेतु कितना कष्ट उठाना पड़ता है वो उनके गीतों में साफ झलकता, उनका गाया हुआ एक गीत बरस दिन को पैलो म्हैणा आयो ईजु भिटोलिया म्हैणा ;ये गीत लोकगायक स्व. भानूराम सुकोटी ने लिखा द्ध इस गीत में पहाड़ी अंचल में चैत के महीने में विवाहित स्त्री को उसके मायके पक्ष से दी जाने वाली भेंट का जिक्र है जिसे कबूतरी ने अपनी मार्मिक आवाज में गाकर अमर बना दिया और इस प्रकार वो हर स्त्री की आवाज बन गई। कबूतरी देवी के गीतों में प्रेम के युगल गीत ना के बराबर सुननु को मिले यहां के लोकजीवन को व्यक्त करते हो। ईश वन्दना भी उनके गीतों में मुख्य रूप से सुनने को मिलती है। अपनी मिट्टी से जुड़े होने के कारण लोक की झलक उनके कण्ठ में थी ही साथ ही कबूतरी देवी का संगीत का शास्त्रीय पक्ष भी मजबूत था। ठुमरी, गजल, गीत, झपताल, तीनताल की बंदिशे और भजन को बखूबी गाती थी। राग, कटरवा दादरा वो जब भी गाती महफिल लूट लेती थी। मेरे दिल की दुनिया में हलचल मचा दी इस गीत को जब भी कबूतरी गाती एक अजीब कशिश सुनाई देती थी उनकी आवाज में ये गीत खुशनुमा माहौल बनाता सुनाई देता। जबकि ये गीत 1951 में आई फिल्म गुमास्ता का है। इस फिल्म में ये गीत गीता दत्त ने गाया है। गीता दत्त की आवाज में ये गीत दर्द भरा है। जब कबूतरी ने इस गीत को अपने अन्दाज में गाया तो इस गीत का रंग ही बदल गया ये कबूतरी के कोकिल कण्ठ की ही देन है सायद यही कारण है कि उनका नाम मल्लिका ए तरन्नुमा बेगम अख्तर से जोड़ा गया। भारत नेपाल की साॅझी संस्कृति को संजोकर कबूतरी देवी ने अपने लोकगीतों को खासी पहचान दिलाई। 7 जुलाइ 2018 को पहाड़ो पर गूंजने वाली पहाड़ो की ये आवाज पहाड़ो में ही खो गयी।
रेखा सिलोरी आकाशवाणी अल्मोड़ा

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