बहुमत के बाद भी हारा गैंरसैंण

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गिरीश चन्दोला

हल्द्वानी। 60-70 वर्ग किमी. में फैली इस समतल घाटी की समुद्रतल से उंचाई लगभग 5360 फिट है। यह दूधातोली और व्यासी पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा हुआ चमोली की एक तहसील और विकासखण्ड है। यह उत्तराखण्ड के केन्द्र पर स्थित है। 24-25 जुलाई 1992 को उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के 14वें अधिवेशन में बडोनी व काशी सिंह ऐरी ने गैरसैंण का नाम वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नाम पर चन्द्रनगर रखकर राज्य की राजधानी घोषित किया और इसका शिलान्यास भी किया। उसके बाद राज्य बनने के उपरान्त कभी भाजपा सतारूढ़ हुई तो कभी कांग्रेस सत्ता में आई। जिन्होंने इसका शिलान्यास ही का कार्य अब तक किया। कौशिक समिति ने मई 1994 मंे अपने रिपोर्ट में राजधानी के लिए गैरसैंण की सिफारिश की और इसका 68 प्रतिशत लोगों ने समर्थन किया था। वही सन् 1998 में गढ़वाल विश्वविद्यालय के मीडिया सेन्टर द्वारा कराए गये सर्वेक्षण में 80 प्रतिशत जनता की राय गैरसैंण को राजधानी बनाने की थी। इतना बहुमत मिलने के बाद भी गैरसैंण का राजधानी ना बन पाना आश्चर्यचकित कर देने वाली बात है। उत्तराखण्ड में स्थाई राजधानी को लेकर कई जन आन्दोलन भी हुए और अब भी जन आन्दोलन अनवरत जारी है। बाबा मोहन उत्तराखण्डी राजधानी की स्थापना को लेकर 38 दिनों के अनशन के बाद 8 अगस्त 2004 को बेनीताल में शहीद हो गये। पूर्व मुख्यमंत्री वर्तमान राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने उत्तरांचल प्रदेश नामक पुस्तक में गैरसैंण को राजधानी के लिए उपर्युक्त बताया है। यहां बता दे कि राज्य निर्माण के बाद बेशक 11 जनवरी 2001 को अंतरिम भाजपा सरकार ने स्थायी राजधानी चयन आयोग का गणन किया और फिर 28 नवम्बर 2002 को कांग्रेस सरकार ने इसे पुर्नजीवित किया हो पर निश्कर्ष शून्य ही निकला।
राजधानी विवाद पर विराम लगाते हुए 3 नवम्बर 2012 को मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने गैरसैंण में मंत्रिपरिषद की बैठक आयोजित की और विधानसभा बनाने का निर्णय लिया। जिसके बाद 14 जनवरी 2013 को मुख्यमंत्री बहुगुणा ने भराड़ीसैंण में प्रस्तावित द्वितीय विधानसभा हेतु गैरसैंण में स्थायी राजधानी को लेकर औपचारिक शिलान्यास किया, उसके बाद 9 नवम्बर 2013 को भराड़ीसैंण में भूमि पूजन कर भवन निर्माण शुरू कराया गया।
उत्तराखण्ड की राजनीति में उथल-पुथल का दौर भी देखने को मिलता रहा है। पर वर्तमान में पूर्ण बहुमत के साथ राज्य ही नहीं अपितु केन्द्र में भी भाजपा की सरकार विद्यमान है। जिसके बावजूद आज भी गैरसैंण उत्तराखण्ड की स्थायी राजधानी बनने से कोसों दूर नजर आ रही है। यह प्रश्न यह उठने लाजमी है कि आखिर सत्ता पक्ष हो या विपक्ष उत्तराखण्ड को स्थायी राजधानी दिलाने में क्यों असहजता नजर आ रहे है ? आखिर क्या वजह है कि उत्तराखण्ड स्थायी राजधानी को लेकर भी संघर्षो से गुजरना पड़ रहा है।
वैसे तो अव्यवस्थाओं से ही व्यवस्थाओं का जन्म होता है पर शासन-प्रशासन अपनी व्यवस्थाओं को लेकर राज्य की राजधानी का मुद्दा भुनाए बैठी है। शुरूआती दौर में अधिकारी वर्ग से लेकर नेताओं तक को असुविधाओं का सामना करना पड़ सकता है पर धीरे-धीरे ही सुविधाओं का आनन्द भी मुहैया हो सकता है। वैसे तो जनता का बहुमत होने के बाद भी आज गैरसैंण स्थायी राजधानी का दर्जा ना ले पा रहा हो पर एक बात तो है कि सरकार द्वारा गैरसैंण को स्थाई राजधानी का दर्जा ना दे पाना उनकी निरकुंश कार्यशैली को प्रदर्शित कर रहा है।

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